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दे॒वीस्ति॒स्रस्ति॒स्रो दे॒वीः पति॒मिन्द्र॑मवर्धयन्। अस्पृ॑क्ष॒द् भार॑ती॒ दिव॑ꣳ रु॒द्रैर्य॒ज्ञꣳ सर॑स्व॒तीडा॒ वसु॑मती गृ॒हान् व॑सु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥१८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वीः। ति॒स्रः। ति॒स्रः। दे॒वीः। पति॑म्। इन्द्र॑म्। अ॒व॒र्ध॒य॒न्। अस्पृ॑क्षत्। भार॑ती। दिव॑म्। रु॒द्रैः। य॒ज्ञम्। सर॑स्वती। इडा॑। वसु॑म॒तीति॒ वसु॑ऽमती। गृ॒हान्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥१८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:28» मन्त्र:18


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जो (रुद्रैः) प्राणों से (भारती) धारण करने हारी (दिवम्) प्रकाश को (सरस्वती) विज्ञानयुक्त वाणी (यज्ञम्) सङ्गति के योग्य व्यवहार को (वसुमती) बहुत द्रव्योंवाली (इडा) प्रशंसा के योग्य वाणी (गृहान्) घरों वा गृहस्थों को धारण करती हुई (देवीः, तिस्रः) (तिस्रः, देवीः) तीन दिव्य क्रिया (यहाँ पुनरुक्ति आवश्यकता जताने के लिए है) (पतिम्) पालन करने हारे (इन्द्रम्) सूर्य के तुल्य तेजस्वी जीव को (अवर्धयन्) बढ़ाती हैं, (वसुधेयस्य) धन कोष के (वसुवने) धन दान में घरों को (व्यन्तु) प्राप्त हों, उनको आप (यज) प्राप्त हूजिये और आप (अस्पृक्षत्) अभिलाषा कीजिए ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - जैसे जल अग्नि और वायु की गति उत्तम क्रियाओं और सूर्य के प्रकाश को बढ़ाती हैं, वैसे जो मनुष्य सब विद्याओं का धारण करने सब क्रिया का हेतु और सब दोष गुणों को जतानेवाली तीन प्रकार की वाणी को जानते हैं, वे इस सब द्रव्यों के आधार संसार में लक्ष्मी को प्राप्त हो जाते हैं ॥१८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(देवीः) देव्यः (तिस्रः) त्रित्वसंख्याकाः (तिस्रः) पुनरुक्तमतिशयबोधनार्थम् (देवीः) दिव्याः क्रियाः (पतिम्) पालकम् (इन्द्रम्) सूर्यमिव जीवम् (अवर्द्धयन्) वर्द्धयन्ति (अस्पृक्षत्) स्पृहेत् (भारती) धारिका (दिवम्) प्रकाशम् (रुद्रैः) प्राणैः (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यं व्यवहारम् (सरस्वती) विज्ञानयुक्ता वाक् (इडा) प्रशंसनीया वाणी (वसुमती) बहूनि वसूनि द्रव्याणि विद्यन्ते यस्यां सा (गृहान्) गृहस्थान् गृहाणि वा (वसुवने) (वसुधेयस्य) (व्यन्तु) (यज) ॥१८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! या रुद्रैर्भारती दिवं सरस्वती यज्ञं वसुमतीडा गृहान् धरन्त्यो देवीस्तिस्रस्तिस्रो देवीः पतिमिन्द्रञ्चावर्द्धयन् वसुधेयस्य वसुवने गृहान् व्यन्तु तास्त्वं यज भवानस्पृक्षत् ॥१८ ॥
भावार्थभाषाः - यथा जलाग्निवायुगतयो दिव्याः क्रियाः सूर्यप्रकाशं च वर्द्धयन्ति, तथा ये मनुष्याः सकलविद्याधारिकामखिलक्रियाहेतुं सर्वदोषगुणविज्ञापिकां त्रिविधां वाचं विजानन्ति, तेऽस्मिन् सर्वद्रव्याकरे संसारे श्रियमाप्नुवन्ति ॥१८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जसे जल, अग्नी व वायूची गती यांच्यामुळे उत्तम क्रिया होते व सूर्यप्रकाश वाढतो. तसे जी माणसे सर्व विद्या धारण करणारी वाणी, सर्व क्रियांचा हेतू असणारी वाणी व गुणदोष दाखविणारी वाणी अशी तीन प्रकारची वाणी जाणतात ती या जगात लक्ष्मीला प्रसन्न करून घेतात.